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लेख-निबंध >> औरत का कोई देश नहीं

औरत का कोई देश नहीं

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :235
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 7014
आईएसबीएन :978-81-8143-985

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औरत का कोई देश नहीं होता। देश का अर्थ अगर सुरक्षा है, देश का अर्थ अगर आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता।...

नारी शरीर


इतने अर्से तक पुरुषों द्वारा नारी शरीर के बारे में बहुत कुछ लिखा व आँका गया है और अपने मन की मधुरता मिलाकर खूब-खूब रचा व गढ़ा गया है। नारी शरीर को ले कर नारी को लिखने का हक नहीं था। नारी दिल के बारे में लिख सकती है, लेकिन शरीर के बारे में नहीं। लेकिन अब महिला लेखिकाएँ-कवयित्रियाँ, पुरुषों द्वारा तैयार किये गये घेरे से बाहर निकल आना चाहती हैं। अब वे महिलाएं अपने शरीर के बारे में अपने ढंग से लिख रही हैं। नारी-देह पुरुषों की सम्पत्ति नहीं है या लेखक-कवियों के अधिकार का विषय नहीं है, महिला लेखिका-कवयित्रियाँ अगर यह बात तय कर लें तो साहित्य जगत में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जायेगा। बंगाली समाज कुत्सित पुरुषतन्त्र द्वारा अभी भी आक्रान्त है, लेकिन बांग्ला साहित्य में पुरुषतान्त्रिक नियम-नीतियों को तोड़ने की हल्की-फुल्की ही सही, कोशिशें जारी हैं। वह शायद इसलिए कि अधिकांश बंगाली महिला लेखिका-कवयित्रियाँ सुशिक्षित और आत्मनिर्भर हैं तथा अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हैं। लेकिन समाज में अभी भी औरत असहाय है; अभी भी पण्य-सामग्री, भोग-सामग्री, यौन-सामग्री के तौर पर चिन्हित है। वह स्कूल-कॉलेज तो जा रही है लेकिन सच्चे मायनों में शिक्षित नहीं हो रही है। नारी खुद उपार्जन कर रही है मगर पुरुष पर पहले की तरह ही निर्भर है। ज्यादातर औरत ही पुरुषतन्त्र की धारक और संवाहक है। ज़्यादातर औरतें ही इस बात से बेखबर हैं कि वे लोग निर्यातित हैं। ज़्यादातर औरतें ही अपने कैदी जीवन से मक्ति पाने में डरती हैं। ऐसी असहाय स्थिति इस पुरुषतान्त्रिक व्यवस्था ने ही रची है। इस समाज में औरत मर्द की दासी है। हालाँकि नंगी आँखों से देखें तो दासी दासी जैसी नहीं लगती। रिश्तों की गहराई में जाते ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। औरत जब प्रेमिका होती है तब वह दासी होती है। जब बीवी बन जाती है तब भी वह दासी ही रहती है, ऊँचे किस्म की दासी। उसे पुरुष-प्रेमी या पति का आदेश-निर्देश मान कर चलना पड़ता है। पुरुष जैसा चाहता है, औरत को अपने को  गढ़ना पड़ता है।

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    अनुक्रम

  1. इतनी-सी बात मेरी !
  2. पुरुष के लिए जो ‘अधिकार’ नारी के लिए ‘दायित्व’
  3. बंगाली पुरुष
  4. नारी शरीर
  5. सुन्दरी
  6. मैं कान लगाये रहती हूँ
  7. मेरा गर्व, मैं स्वेच्छाचारी
  8. बंगाली नारी : कल और आज
  9. मेरे प्रेमी
  10. अब दबे-ढँके कुछ भी नहीं...
  11. असभ्यता
  12. मंगल कामना
  13. लम्बे अरसे बाद अच्छा क़ानून
  14. महाश्वेता, मेधा, ममता : महाजगत की महामानवी
  15. असम्भव तेज और दृढ़ता
  16. औरत ग़ुस्सा हों, नाराज़ हों
  17. एक पुरुष से और एक पुरुष, नारी समस्या का यही है समाधान
  18. दिमाग में प्रॉब्लम न हो, तो हर औरत नारीवादी हो जाये
  19. आख़िरकार हार जाना पड़ा
  20. औरत को नोच-खसोट कर मर्द जताते हैं ‘प्यार’
  21. सोनार बांग्ला की सेना औरतों के दुर्दिन
  22. लड़कियाँ लड़का बन जायें... कहीं कोई लड़की न रहे...
  23. तलाक़ न होने की वजह से ही व्यभिचार...
  24. औरत अपने अत्याचारी-व्याभिचारी पति को तलाक क्यों नहीं दे देती?
  25. औरत और कब तक पुरुष जात को गोद-काँख में ले कर अमानुष बनायेगी?
  26. पुरुष क्या ज़रा भी औरत के प्यार लायक़ है?
  27. समकामी लोगों की आड़ में छिपा कर प्रगतिशील होना असम्भव
  28. मेरी माँ-बहनों की पीड़ा में रँगी इक्कीस फ़रवरी
  29. सनेरा जैसी औरत चाहिए, है कहीं?
  30. ३६५ दिन में ३६४ दिन पुरुष-दिवस और एक दिन नारी-दिवस
  31. रोज़मर्रा की छुट-पुट बातें
  32. औरत = शरीर
  33. भारतवर्ष में बच रहेंगे सिर्फ़ पुरुष
  34. कट्टरपन्थियों का कोई क़सूर नहीं
  35. जनता की सुरक्षा का इन्तज़ाम हो, तभी नारी सुरक्षित रहेगी...
  36. औरत अपना अपमान कहीं क़बूल न कर ले...
  37. औरत क़ब बनेगी ख़ुद अपना परिचय?
  38. दोषी कौन? पुरुष या पुरुष-तन्त्र?
  39. वधू-निर्यातन क़ानून के प्रयोग में औरत क्यों है दुविधाग्रस्त?
  40. काश, इसके पीछे राजनीति न होती
  41. आत्मघाती नारी
  42. पुरुष की पत्नी या प्रेमिका होने के अलावा औरत की कोई भूमिका नहीं है
  43. इन्सान अब इन्सान नहीं रहा...
  44. नाम में बहुत कुछ आता-जाता है
  45. लिंग-निरपेक्ष बांग्ला भाषा की ज़रूरत
  46. शांखा-सिन्दूर कथा
  47. धार्मिक कट्टरवाद रहे और नारी अधिकार भी रहे—यह सम्भव नहीं

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